भरोसे का कत्ल : समाज और सिस्टम पर सवाल छोड़ गई बहुचर्चित किडनी कांड की पीड़िता सुनीता देवी की मौत
सिस्टम की लचर व्यवस्था के साथ सुनीता ने दो साल तक जीवन और मौत के बीच संघर्ष किया, मगर अंत में उसकी लड़ाई अधूरी रह गई
राजेश श्रीवास्तव (वरिष्ठ पत्रकार)
भरोसे का कत्ल : जिस समाज में हम सब रहते हैं, उस समाज में ईश्वर यानी भगवान के बाद आज भी लोग डॉक्टर को भगवान की श्रेणी में रखते हैं। इलाज में जब एक डॉक्टर मौत का सौदागर बन जाए तो आखिर किस पर भरोसा किया जाए, यह बड़ा सवाल है…?
सवाल यह भी है कि क्या जिस समाज में हम जी रहे हैं और सांसे ले रहे हैं, उस समाज में इंसानियत, मानवता मृत प्राय हो चुकी है। क्या सब कुछ रुपया-पैसा धन-दौलत ही रह गया है।
कहने को तो लोकतांत्रिक देश भारत में हमारा समाज इंसानियत, मानवता की बड़ी-बड़ी बातें करता है, बड़ी-बड़ी दींगे हाकता है, लेकिन इसकी जमीनी हकीकत क्या है, यही कि रुपए-पैसे धन-दौलत के आगे किसी के जान की कोई कीमत नहीं है।
लोकतांत्रिक देश भारत में रोटी-कपड़ा-मकान, दवाई-पढ़ाई, सुरक्षा-संरक्षा का दंभ भरने वाले पहरुए, सरकारें इन सब बातों से अनभिज्ञ है। गरीब क्या मरने के लिए ही पैदा हुआ है, उसके जान और स्मत की कोई वैल्यू नहीं। यह सवाल उस सिस्टम से है, जो जागते हुए सपने दिखाता है कि हम आपका पूरा ख्याल रखते है।
आज कल तो एक नारा बहुत प्रचलित हो चला है…”सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास’’ बिहार में हुए भरोसे के कत्ल के बाद जब मैं उसे ढ़ूढ़ने लगा तो कहीं नहीं मिला, क्योंकि यहां तो सिस्टम की नाकामी से एक परिवार के उम्मीद का दीया बूझ गया, उसके परिवार का सपना टूट कर बिखर गया, यहां मुझे कही ”सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास’’ नजर नहीं आया।
हम बात कर रहे हैं बरियारपुर के बहुचर्चित किडनी कांड की पीड़िता सुनीता देवी की, जिसकी एक किडनी की तलाश में समाज और सिस्टम के आगे मौत हो गई। सुनिता शायद अपनी जंग इसलिए हार गई कि वह एक मजदूर की पत्नी थी, गरीब परिवार से थी। इसलिए उसके भरोसे का कत्ल हो गया। सुनीता की दर्द भरी दांस्ता आप जब पढ़ेंगे और सुनेंगे तो आपकी आंखों से भी आंशू छलक जाएंगे।
सुनीता देवी, बिहार के मुजफ्फरपुर जनपद के सकरा थाना क्षेत्र के बाजी राउत गांव की 35 वर्षीय महिला थी, जो मजदूर अकलू राम की पत्नी थी। एसकेएमसीएच के प्रभारी अधीक्षक डॉ. सतीश कुमार ने सुनीता के मौत की जैसे ही पुष्टी की, वैसे ही सुनिता के मजदूर पति अकलू राम और उसके परिवार पर पहाड़ टूट पड़ा।
सुनीता सोमवार को मुजफ्फरपुर के एसकेएमसीएच के आईसीयू में आखिरी सांस ली। करीब दो वर्षों तक अस्पताल के बिस्तर पर जीवन और मौत के बीच संघर्ष करने के बाद भी वह हार गई। यह कहानी सिर्फ एक मरीज की नहीं, बल्कि उस लचर चिकित्सा व्यवस्था की है, जिसने समय रहते उसे बचाने के लिए कुछ नहीं किया। सुनीता का जीवन प्रशासनिक उदासीनता और स्वास्थ्य तंत्र की असफलता का शिकार हो गया।
आइए जानतें है सुनती के दर्द भरे दांस्ता की शुरूआत कैसे हुई
सबकुछ 11 जुलाई 2022 को शुरू हुआ, जब सुनीता को पेट में अचानक तेज दर्द हुआ। परेशान परिवार उसे इलाज के लिए स्थानीय डॉक्टर पवन कुमार के क्लिनिक ले गया। डॉक्टर ने तुरंत ही ऑपरेशन की सलाह दी, दावा किया कि गर्भाशय में समस्या है और इसे जल्द से जल्द निकालना जरूरी है। 3 सितंबर 2022 को बरियारपुर स्थित शुभकांत क्लिनिक में उसका ऑपरेशन किया गया। लेकिन यह क्लिनिक कोई मान्यता प्राप्त अस्पताल नहीं था, बल्कि झोलाछाप डॉक्टरों द्वारा संचालित एक अवैध केंद्र था। यहीं सुनीता के दर्द भरे इलाज की आड़ में सौदागर डॉक्टर ने मौत की साजिश रच दी।
ऑपरेशन के कुछ दिनों बाद, सुनीता की तबीयत बिगड़ने लगी। जब 5 सितंबर को उसे श्रीकृष्ण मेडिकल कॉलेज और अस्पताल (SKMCH) लाया गया, तो उसकी स्थिति लगातार बिगड़ती रही। 07 सितंबर को किए गए अल्ट्रासाउंड ने परिवार पर कहर ढा दिया, सुनीता की दोनों किडनियां ऑपरेशन के दौरान निकाल ली गई थीं। यह खुलासा एक अमानवीय साजिश की कहानी बयां कर रहा था, जिसे एक डॉक्टर के पेशेवर विश्वासघात ने अंजाम दिया।
विधि का न्याय और व्यवस्था की नाकामी
सुनीता की मां ने सकरा थाने में डॉक्टर पवन कुमार के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज कराई। मामले की जांच तेज़ी से हुई और अदालत ने पवन कुमार को दोषी करार देते हुए सात साल के कठोर कारावास की सजा सुनाई। लेकिन इस सजा ने सुनीता की पीड़ा को नहीं कम किया। वह अस्पताल में नियमित डायलिसिस और चिकित्सकीय देखरेख के सहारे जीने की कोशिश करती रही, लेकिन उसकी हालत दिन-ब-दिन बिगड़ती चली गई।
सुनीता का पति अकलू राम, जो एक मामूली मजदूर था, अस्पताल के खर्च और परिवार की जिम्मेदारियों के बोझ तले दबता चला गया। उसने हर संभव दरवाजा खटखटाया—सरकार से लेकर प्रशासन तक—इस उम्मीद में कि उसकी पत्नी को किडनी प्रत्यारोपण के लिए मदद मिलेगी। मगर सुनीता के जीवन के लिए आवश्यक किडनी का इंतजार कभी खत्म नहीं हुआ। सरकारी सिस्टम में कागजों पर फाइलें आगे बढ़ती रहीं, मगर मदद की कोई रोशनी सुनीता के जीवन में नहीं आई।
जीवन की जंग और अंतिम हार
लगभग दो साल तक SKMCH के आईसीयू में भर्ती रहकर सुनीता ने मौत से जंग लड़ी। हर डायलिसिस के बाद उसकी आंखों में जीने की नई उम्मीद झलकती थी, मगर समय के साथ उसकी कमजोर होती काया इस उम्मीद का बोझ नहीं उठा पाई। चिकित्सकों ने पूरी कोशिश की, लेकिन एक किडनी न मिल पाने के कारण वे भी असहाय हो गए।
अस्पताल के बिस्तर पर लेटी सुनीता हर दिन इस उम्मीद में आंखें खोलती थी कि शायद आज उसे किडनी मिल जाएगी। मगर 21 अक्टूबर की सुबह वह उम्मीद भी टूट गई, जब सुनीता की सांसें थम गईं। उसके पति अकलू राम की आंखों में दर्द और निराशा के साथ एक सवाल तैरता रह गया—”आखिर क्यों सरकार और समाज उसकी पत्नी के लिए समय रहते किडनी का इंतजाम नहीं कर पाए?”
दोषी कौन…डॉक्टर, सिस्टम या इंसानियत की कमी…?
सुनीता की मौत सिर्फ एक डॉक्टर की साजिश का परिणाम नहीं बल्कि यह पूरे तंत्र की असफलता का प्रतिबिंब है। पवन कुमार जैसे झोलाछाप डॉक्टर की गिरफ्तारी और सजा से परिवार को कुछ राहत जरूर मिली, मगर यह न्याय अधूरा था। असली सवाल यह है कि जब सुनीता की जिंदगी को बचाने के लिए एक किडनी की जरूरत थी, तब सरकार और स्वास्थ्य विभाग क्यों असफल रहे?
आखिर ऐसी कौन-सी व्यवस्था है, जो जरूरतमंदों को समय पर अंग प्रत्यारोपण जैसी जरूरी चिकित्सा सेवाएं नहीं दे पाती? किडनी प्रत्यारोपण की लंबी प्रक्रिया, नियमों की जटिलताएं और सरकारी तंत्र की सुस्ती ने सुनीता के जीवन को खत्म कर दिया। यह मामला उस इंसानियत पर भी सवाल खड़ा करता है, जो एक बेसहारा महिला की मदद के लिए आगे नहीं आई।
अधूरी उम्मीदों की कहानी
सुनीता की मौत सिर्फ एक परिवार का नुकसान नहीं, बल्कि पूरे समाज के लिए चेतावनी है। यह घटना प्रशासनिक उदासीनता और स्वास्थ्य तंत्र की खामियों की कहानी है, जो समय पर जरूरतमंदों को राहत नहीं दे पाता। सुनीता ने दो साल तक जीवन और मौत के बीच संघर्ष किया, मगर अंत में उसकी लड़ाई अधूरी रह गई।
वह जीना चाहती थी। वह हर दिन एक किडनी की उम्मीद के साथ आंखें खोलती थी, मगर सिस्टम की खामियों ने उसकी उम्मीदों को कुचल दिया। सुनीता की मौत सिर्फ उसका अंत नहीं है, बल्कि यह सवाल खड़ा करती है कि अगर समय पर उसे किडनी मिल जाती, तो क्या उसकी कहानी का अंत ऐसा होता?
इस घटना ने यह स्पष्ट कर दिया कि केवल अपराधियों को सजा देना पर्याप्त नहीं है। व्यवस्था को भी जिम्मेदार ठहराना जरूरी है, ताकि भविष्य में कोई और सुनीता इस तरह असमय अपनी जान न गंवाए।
(लेखक खबरी चिरईया के संस्थापक/संपादक हैं और यूपी बिहार, पंजाब में दैनिक जागरण और दैनिक भास्कर जैसे बड़े अखबारों में बड़ी जिम्मेदारी के रूप में वर्षों यात्रा करते हुए अपनी सेवा दी है)
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