पराली जलाने से बिहार का दम घुट रहा है, कौन जिम्मेदार…?
प्रदूषण का बढ़ता स्तर स्वास्थ्य पर भारी, जागरूकता और समाधान की राह में प्रशासन असफल
नीरज कुमार, बिहार
बिहार के सभी जिलों में, विशेष रूप से पूर्वी चंपारण में, पराली जलाने की समस्या लगातार गंभीर बनी हुई है। सुप्रीम कोर्ट के आदेश और बिहार सरकार की सख्ती के बावजूद, किसानों द्वारा पराली जलाने की घटनाओं पर पूरी तरह से रोक नहीं लग पाना चिंताजनक है। यह समस्या केवल पर्यावरणीय क्षति का कारण नहीं बनती, बल्कि मानव स्वास्थ्य और कृषि उत्पादकता पर भी गहरा प्रभाव डालती है। पराली जलाने से निकलने वाला धुआं वायुमंडल को विषाक्त बना रहा है, जिससे लोगों में सांस की बीमारियां बढ़ रही हैं।
सरकार और प्रशासन द्वारा इस मुद्दे पर लगाम लगाने के लिए विभिन्न दावे किए गए हैं, लेकिन उनका प्रभाव जमीनी स्तर पर दिखता नहीं है। जागरूकता अभियान चलाने के बावजूद किसान इस प्रथा को छोड़ने के लिए तैयार नहीं हैं। मुख्य समस्या यह है कि किसानों के पास पराली के निपटारे का कोई सरल और किफायती विकल्प नहीं है। आधुनिक कृषि उपकरण और प्रौद्योगिकी तक उनकी पहुंच सीमित है। ऐसे में, पराली जलाना उनके लिए सबसे सस्ता और सरल उपाय बन जाता है।
इस समस्या का समाधान केवल कानूनों की सख्ती से संभव नहीं है। आवश्यकता इस बात की है कि किसानों को व्यावहारिक विकल्प दिए जाएं और उन पर भरोसा बनाने की कोशिश की जाए। पराली को संसाधन के रूप में देखने और इसका सही उपयोग करने की दिशा में प्रयास करना आवश्यक है। उदाहरण के लिए, पराली से जैविक खाद, बायो-एनर्जी और कागज बनाने के प्रकल्प को बढ़ावा दिया जा सकता है। इससे किसानों को आर्थिक लाभ होगा और वे इसे जलाने के बजाय इसके सही उपयोग के प्रति प्रेरित होंगे।
इसके अलावा, सरकार और प्रशासन की नीतियों में जमीनी हकीकत का अभाव भी इस समस्या को बढ़ा रहा है। जागरूकता अभियान केवल कागजों पर सीमित होकर रह गए हैं। गांवों में प्रचार-प्रसार के माध्यम कमजोर हैं और किसानों को पराली जलाने के खतरों के बारे में सही जानकारी नहीं मिल पाती। पंचायत स्तर पर शिक्षा और तकनीकी सहायता केंद्रों की स्थापना की आवश्यकता है, जहां किसानों को पराली न जलाने के लाभ और विकल्पों के बारे में विस्तार से बताया जा सके।
यह भी ध्यान देने की जरूरत है कि पराली जलाने की समस्या केवल किसानों की नहीं, बल्कि सामूहिक चेतना की कमी का भी परिणाम है। समाज के सभी वर्गों को यह समझने की जरूरत है कि प्रदूषण केवल हवा को ही नहीं, बल्कि हमारे पूरे जीवन को प्रभावित करता है। प्रदूषण के कारण बढ़ते अस्थमा, ब्रोंकाइटिस और फेफड़ों के संक्रमण जैसे स्वास्थ्य संकट इस मुद्दे की गंभीरता को रेखांकित करते हैं।
इसके अतिरिक्त, कृषि विज्ञान केंद्र और विशेषज्ञों को किसानों के साथ नियमित संवाद करना चाहिए और उन्हें नई तकनीकों और पद्धतियों से अवगत कराना चाहिए। उदाहरण के लिए, ‘जीरो टिलेज’ और ‘हैप्पी सीडर’ जैसी तकनीकें पराली जलाने की समस्या का प्रभावी समाधान हो सकती हैं। लेकिन इन तकनीकों को अपनाने के लिए किसानों को प्रोत्साहन और सब्सिडी दी जानी चाहिए।
अंततः यह समस्या केवल कानून और सख्ती से हल नहीं हो सकती। इसके लिए समाज के हर हिस्से का योगदान जरूरी है। किसानों को पराली जलाने के दुष्प्रभावों को समझाना और व्यावहारिक समाधान उपलब्ध कराना ही इस समस्या का स्थायी हल है। सरकार को चाहिए कि वह जागरूकता के साथ-साथ ठोस प्रबंधन की दिशा में कदम उठाए, जिससे न केवल पर्यावरण सुरक्षित रहे, बल्कि किसानों को भी लाभ हो। प्रदूषण और स्वास्थ्य के बीच के इस गंभीर संबंध को समझना और उसे दूर करना हमारी सामूहिक जिम्मेदारी है।
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