December 11, 2024

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आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट का सख्त रुख, क्या है वजह?

आरक्षण नीति

आरक्षण नीति

  • हाईकोर्ट ने पश्चिम बंगाल में 2010 से कई जातियों को दिए गए ओबीसी दर्जे को रद्द कर दिया था।

राष्ट्रीय : भारत में आरक्षण नीति सामाजिक न्याय और समानता के सिद्धांतों पर आधारित है। इसका उद्देश्य ऐतिहासिक रूप से वंचित और पिछड़े समुदायों को मुख्यधारा में लाना है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट द्वारा यह स्पष्ट करना कि आरक्षण धर्म के आधार पर नहीं दिया जा सकता, एक ज्वलंत बहस को जन्म देता है। यह मुद्दा केवल न्यायिक दृष्टिकोण तक सीमित नहीं है, बल्कि सामाजिक, राजनीतिक और सांविधानिक पहलुओं को भी प्रभावित करता है।

सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी : एक महत्वपूर्ण निर्णय

सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को कलकत्ता हाईकोर्ट के एक निर्णय पर सुनवाई करते हुए कहा कि आरक्षण केवल धर्म के आधार पर नहीं हो सकता। हाईकोर्ट ने पश्चिम बंगाल में 2010 से कई जातियों को दिए गए ओबीसी दर्जे को रद्द कर दिया था। यह फैसला इस आधार पर लिया गया कि इन जातियों को ओबीसी घोषित करने का प्रमुख आधार उनका धर्म प्रतीत हो रहा था। हाईकोर्ट ने इस कदम को न केवल असंवैधानिक ठहराया, बल्कि इसे मुस्लिम समुदाय का अपमान भी करार दिया।

सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान पश्चिम बंगाल सरकार का पक्ष वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने रखा। उन्होंने तर्क दिया कि यह आरक्षण धर्म नहीं, बल्कि पिछड़ेपन के आधार पर दिया गया था। हालांकि, जस्टिस बी. आर. गवई ने अपने स्पष्ट बयान में कहा कि “आरक्षण धर्म के आधार पर नहीं हो सकता।”

सामाजिक प्रभाव और उच्च न्यायालय का रुख

कलकत्ता हाईकोर्ट ने अपने फैसले में यह संकेत दिया कि मुस्लिम समुदाय के 77 वर्गों को पिछड़े वर्गों के रूप में चिन्हित करना समग्र रूप से समुदाय का अपमान है। अदालत का यह निर्णय आरक्षण के मूल उद्देश्य—समाज के आर्थिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों को सशक्त बनाना-पर नए सिरे से सोचने का अवसर प्रदान करता है।

लेकिन, सवाल उठता है कि क्या धर्म के साथ-साथ सामाजिक पिछड़ापन भी निर्णायक कारक हो सकता है? भारत के कई हिस्सों में, जातीय और धार्मिक पहचान अक्सर सामाजिक पिछड़ेपन से जुड़ी होती है। ऐसे में, केवल धर्म के आधार पर किसी वर्ग को पिछड़ेपन का दर्जा देना संविधान के साथ-साथ समाज के संतुलन को भी चुनौती देता है।

राजनीतिक और संवैधानिक पक्ष

आरक्षण नीति पर इस तरह के निर्णय का सीधा प्रभाव न केवल समाज पर पड़ता है, बल्कि राजनीतिक परिदृश्य पर भी इसकी छाप स्पष्ट होती है। आरक्षण, एक संवेदनशील मुद्दा होने के साथ-साथ, राजनीतिक दलों के लिए वोट बैंक की राजनीति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। ऐसे में न्यायपालिका का यह निर्णय संविधान की मूल आत्मा को बनाए रखने का प्रयास है, जो धर्मनिरपेक्षता और समानता पर आधारित है।

सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट का यह रुख राजनीतिक दलों के लिए आरक्षण की नीति को पुनः परिभाषित करने का अवसर प्रदान करता है। यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि आरक्षण का आधार सामाजिक और आर्थिक पिछड़ापन हो, न कि धर्म।

समाधान की दिशा में प्रयास

आरक्षण नीति को लेकर न्यायपालिका के इस रुख से सरकारों को यह समझने का अवसर मिलता है कि इस नीति को प्रभावी और संतुलित बनाना आवश्यक है। जरूरत इस बात की है कि ओबीसी सूची तैयार करते समय व्यापक सर्वेक्षण और गहन अध्ययन किया जाए, जिससे केवल वास्तविक रूप से वंचित वर्गों को ही इसका लाभ मिले।

इसके अलावा, राजनीतिक दलों को भी आरक्षण की संवेदनशीलता को समझते हुए इसे वोट बैंक की राजनीति का साधन बनाने से बचना चाहिए। न्यायपालिका के इन निर्णयों का सम्मान करते हुए आरक्षण के दायरे को समाज के व्यापक हित में लागू किया जाना चाहिए।

सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय न केवल एक संवैधानिक स्पष्टता प्रदान करता है, बल्कि यह समाज को आरक्षण नीति की गहराई और उसके प्रभावों पर पुनर्विचार करने का अवसर भी देता है। धर्म और आरक्षण का अलगाव सामाजिक न्याय की दिशा में एक बड़ा कदम हो सकता है, लेकिन इसे लागू करने के लिए संवेदनशील और समग्र दृष्टिकोण की आवश्यकता है। न्यायपालिका के इस रुख को सामाजिक सुधार की दिशा में एक अहम निर्णय के रूप में देखा जाना चाहिए।

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