महाकुंभ 2025 : श्रद्धालुओं के अमृत स्नान की जीवनरेखा बने पीपे के पुल

महाकुभ-2025 : पीपे के पुल
महाकुंभ 2025 : प्रशासन ने मेले को 40 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैलाया है, जिसे 25 सेक्टरों में विभाजित किया गया है
प्रयागराज से डॉ. बिजय कुमार प्रसाद सिंह की रिपोर्ट…
महाकुंभ 2025 का भव्य आयोजन संगम नगरी प्रयागराज में एक अद्वितीय आध्यात्मिक और सांस्कृतिक अनुभव के रूप में उभरा है। गंगा, यमुना और अदृश्य सरस्वती के पवित्र संगम पर जुटने वाली आस्था की इस विराट धारा में श्रद्धालुओं की आवाजाही को सहज बनाने के लिए पीपे के पुल एक मजबूत जीवनरेखा का काम कर रहे हैं। इस बार प्रशासन ने मेले को 40 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैलाया है, जिसे 25 सेक्टरों में विभाजित किया गया है। इन सेक्टरों को आपस में जोड़ने के लिए 30 पीपे के पुल बनाए गए हैं, जो न केवल श्रद्धालुओं की आवाजाही का साधन बने हैं, बल्कि मेले की जटिल व्यवस्थाओं का भी केंद्र बन गए हैं।
लोक निर्माण विभाग के अभियंता आलोक कुमार ने बताया कि इन पुलों का निर्माण लोहे के बड़े खोखले डिब्बों, जिन्हें पांटून कहा जाता है, के सहारे किया गया है। इन पांटूनों को पानी पर तैरने के लिए डिज़ाइन किया गया है, जो आधुनिक इंजीनियरिंग और प्राचीन तकनीक का अद्भुत संगम है। पुलों पर हाइड्रोलिक मशीनों से पांटून को सटीक स्थान पर स्थापित किया जाता है। इन पर लकड़ी की मोटी पट्टियां, बलुई मिट्टी और लोहे के एंगल लगाकर इन्हें मजबूत बनाया जाता है। अंतिम चरण में चकर्ड प्लेट्स लगाई जाती हैं, ताकि श्रद्धालुओं और वाहनों के लिए सुरक्षित सतह बनाई जा सके।
विराट निर्माण कार्य और ऐतिहासिक महत्व
महाकुंभ के लिए कुल 30 पुल बनाए गए हैं, जिनमें 2,213 पांटून का उपयोग किया गया। यह अब तक का सबसे बड़ा आंकड़ा है। इस परियोजना में 1,000 से अधिक मजदूरों, इंजीनियरों और अधिकारियों ने 15 महीनों तक दिन-रात मेहनत की। अगस्त 2023 में शुरू हुई इस परियोजना को अक्टूबर 2024 में पूरा कर लिया गया और मेला प्रशासन को सौंप दिया गया।
इन पुलों की निर्माण लागत 17.31 करोड़ रुपये आई है। नागवासुकी मंदिर से झूसी तक बने पुल पर सबसे अधिक खर्च (1.13 करोड़ रुपये) हुआ, जबकि अन्य पुलों की लागत 50 लाख से 89 लाख रुपये के बीच रही। मेले के समापन के बाद इन पुलों को अलग कर उत्तर प्रदेश के विभिन्न हिस्सों में संग्रहित किया जाएगा, जहां इनका अस्थायी पुलों के रूप में पुन: उपयोग किया जा सकेगा।
दिलचस्प बात यह है कि पीपे के पुलों की तकनीक करीब 2,500 वर्ष पुरानी है। इतिहास के पन्नों को पलटें तो फारसी सम्राट ज़र्क्सीस ने 480 ईसा पूर्व ग्रीस पर आक्रमण के दौरान इसी तकनीक का उपयोग किया था। भारत में पहला पीपे का पुल 1874 में हुगली नदी पर बनाया गया था। उस समय इसका उपयोग कोलकाता और हावड़ा को जोड़ने के लिए किया गया था। आधुनिक युग में यह तकनीक महाकुंभ जैसे विशाल आयोजनों में भीड़ प्रबंधन के लिए अत्यंत उपयोगी साबित हो रही है।
आर्किमिडीज सिद्धांत और पांटून का विज्ञान
पांच टन वजनी पांटून का पानी में तैरना भले ही चमत्कार लगता हो, लेकिन इसके पीछे आर्किमिडीज का प्रसिद्ध सिद्धांत काम करता है। अभियंता आलोक कुमार बताते हैं कि पानी में डूबने वाली कोई भी वस्तु अपने द्वारा हटाए गए पानी के बराबर बल का प्रतिरोध झेलती है। यही कारण है कि भारी-भरकम पांटून पानी पर तैरते रहते हैं। हालांकि, पुलों की भार सहन क्षमता 5 टन तक सीमित होती है, और इससे अधिक भार डालने पर इनके क्षतिग्रस्त होने या डूबने का खतरा रहता है। इसी वजह से पुलों पर भीड़ प्रबंधन और वाहनों की संख्या पर विशेष ध्यान दिया गया है।
महाकुंभ का ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व
महाकुंभ केवल एक धार्मिक आयोजन नहीं है, बल्कि यह भारत की सांस्कृतिक और ऐतिहासिक धरोहर का प्रतीक है। हजारों वर्षों से चल रही इस परंपरा में गंगा, यमुना और सरस्वती के पवित्र संगम में स्नान को मोक्ष प्राप्ति का मार्ग माना गया है। इस बार के महाकुंभ में करोड़ों श्रद्धालु गंगा में डुबकी लगाकर अपने जीवन को धन्य बना रहे हैं। इसके साथ ही, 13 अखाड़ों की छावनियां, भव्य शाही स्नान, और पारंपरिक जुलूस महाकुंभ के गौरव को और बढ़ा रहे हैं।
पर्यावरण संरक्षण और भविष्य की योजना
महाकुंभ के आयोजन में पर्यावरण संरक्षण का भी विशेष ध्यान रखा गया है। गंगा नदी की स्वच्छता सुनिश्चित करने के लिए प्रशासन ने कई कदम उठाए हैं। इसके साथ ही, पीपे के पुलों को मेले के बाद पुन: उपयोग के लिए संरक्षित किया जाएगा। यह प्रक्रिया न केवल लागत को कम करती है, बल्कि संसाधनों का बेहतर उपयोग सुनिश्चित करती है।
महाकुंभ 2025 में पीपे के पुल श्रद्धालुओं के लिए यात्रा को सुगम बनाने के साथ ही भारतीय इंजीनियरिंग और प्रबंधन की श्रेष्ठता का भी परिचय दे रहे हैं। इन पुलों ने आस्था और तकनीक के संगम का ऐसा सेतु बनाया है, जो भविष्य में भी प्रेरणा का स्रोत रहेगा।
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