अहमदाबाद में तीन मासूम बच्चों समेत माता-पिता ने की आत्महत्या

बुझती उम्मीदों के साए में एक और परिवार खत्म…अहमदाबाद में पति-पत्नी और उनके तीन मासूम बच्चों की सामूहिक आत्महत्या एक घटना नहीं है, बल्कि यह एक सामाजिक असफलता का दस्तावेज़ है…
Khabari Chiraiya Desk : खबर अहमदाबाद जिले के बावला क्षेत्र की है। यहां रविवार को जो हुआ, वह सिर्फ एक दुखद खबर नहीं थी, बल्कि हमारे समय की सबसे भयावह सच्चाइयों में से एक की पुनरावृत्ति थी। एक छोटा-सा परिवार…34 वर्षीय विपुल कांजी वाघेला, उनकी 26 वर्षीय पत्नी सोनल, 11 और 5 साल की दो बेटियां और 8 साल का बेटा…सभी ने कथित रूप से जहरीला तरल पदार्थ पीकर आत्महत्या कर ली।
इनके बारे में बताया जा रहा है कि वे मूल रूप से ढोलका के रहने वाले थे और बावला में किराए के मकान में रह रहे थे। पांच जिंदगियां एक झटके में समाप्त हो गईं और पीछे छूट गया बस एक सवाल…आखिर क्यों?…जवाब अब तक नहीं मिला है, पर जो संकेत दिख रहे हैं, वे बहुत कुछ कह जाते हैं। आर्थिक संकट? सामाजिक उपेक्षा? मानसिक अवसाद? यह सवाल जितना पीड़ादायक है, उतना ही जरूरी भी।
हर बार ऐसी घटनाएं जब सामने आती हैं तो कुछ घंटे मीडिया में सनसनी बनती हैं, पुलिस जांच की औपचारिकताएं होती हैं और फिर अगली सुबह हम अगली खबर की ओर बढ़ जाते हैं। लेकिन आत्महत्या कभी क्षणिक निर्णय नहीं होती। यह एक लंबी चुप्पी की अंतिम चीख होती है, जिसे हम सबने अनसुना किया होता है। यही चुप्पी अहमदाबाद के इस परिवार की भी रही होगी जिसे समाज ने नहीं सुना, सरकार ने नहीं देखा और शायद अपनों ने भी नहीं समझा।
यह दुर्भाग्य है कि भारत जैसे देश में, जहां ‘परिवार’ एक मजबूत सामाजिक इकाई मानी जाती है, वहीं ऐसे सामूहिक आत्महत्या के मामले लगातार बढ़ रहे हैं। यह स्पष्ट संकेत है कि अब परिवार भी अपनी समस्याओं में अकेला पड़ गया है। वह ना सरकार की योजनाओं तक पहुंच पा रहा है, ना पड़ोसियों की सहानुभूति तक।
सरकार की योजनाएं अक्सर आकड़ों में उलझी होती हैं, ज़मीनी सच से बहुत दूर। मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं का हाल तो और भी खराब है…गिनती के मनोचिकित्सक, सीमित काउंसलिंग सेंटर और समाज में मानसिक स्वास्थ्य को लेकर गहरी चुप्पी। इस चुप्पी ने अब तक न जाने कितनी जानें लील ली हैं। राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य नीति की बातें तो हुईं, लेकिन क्या वास्तव में हर जिले में कोई ऐसा केंद्र है जहां कोई व्यक्ति जाकर कह सके कि…”मैं टूट चुका हूं”?
वहीं दूसरी ओर समाज का मौन रह जाना भी उतना ही बड़ा अपराध है। हम अपने ही पड़ोस में रहने वाले परिवार की व्यथा तक नहीं समझ पाते। जो व्यक्ति रोज ‘नमस्ते’ करता था, उसके चेहरे पर छुपे तनाव को पढ़ना कभी ज़रूरी नहीं समझते। हम बस तब चौंकते हैं, जब वह हमेशा के लिए चला जाता है।
यह घटना केवल पांच व्यक्तियों की मौत नहीं है, बल्कि यह एक सामाजिक असफलता का दस्तावेज़ है। इसमें सरकार की नीतियों की खामियां हैं, सामाजिक ताने-बाने की जर्जरता है और हमारी सामूहिक संवेदनशीलता की कमी है। अब जरूरी है कि हम इन घटनाओं को ‘न्यूज़ आइटम’ की तरह नहीं, ‘अलार्म बेल’ की तरह लें।
अब समय है कि राज्य और केंद्र सरकारें मानसिक स्वास्थ्य को केवल भाषण का मुद्दा न बनाएं, बल्कि प्राथमिकता दें। हर जिले में काउंसलिंग सेंटर हों, हर स्कूल और ऑफिस में मानसिक स्वास्थ्य हेल्पलाइन हो, और ऐसी आपात स्थिति से पहले ही परिवारों को मदद मिल सके।
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