August 1, 2025

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निठारी कांड : सुप्रीम कोर्ट ने दाखिल 14 पुनर्विचार याचिकाओं को खारिज कर दिया, 18 साल से इंसाफ की उम्मीद चकनाचूर

…और फिर अनसुनी रह गईं निठारी की मासूम चीखें…सर्वोच्च न्यायालय ने परिस्थितिजन्य साक्ष्यों को अस्वीकार कर अपीलें खारिज कर दीं, पीड़ितों का कहना है कि उन्हें नहीं मिला इंसाफ

Khabari Chiraiya Desk : निठारी कांड का कड़वा अध्याय और कड़वा हो गया जब सुप्रीम कोर्ट ने निठारी कांड में दाखिल 14 पुनर्विचार याचिकाओं को खारिज कर दिया। इस फैसले ने उन परिवारों की उम्मीदों को चकनाचूर कर दिया जो 18 सालों से अपने बच्चों के लिए इंसाफ की राह तकते रहे। उच्चतम न्यायालय की पीठ ने साफ शब्दों में कहा कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय का फैसला न्यायसंगत था और उसमें कोई कानूनी त्रुटि नहीं है।

निठारी कांड 2006 के अंत में सामने आया था, जब नोएडा के सेक्टर-31 में मोनिंदर सिंह पंढेर के घर के पीछे स्थित नाले से बच्चों के कंकाल मिलने लगे। वह दृश्य केवल जघन्य नहीं था, बल्कि व्यवस्था की संवेदनहीनता का प्रतीक बन गया था। गरीब तबके के जिन बच्चों की गुमशुदगी को लंबे समय तक पुलिस ने गंभीरता से नहीं लिया, उनकी लाशें एक रसूखदार घर के पीछे पाई गईं। बाद में, उनके शवों के अवशेष, खोपड़ियां और कपड़े उसी इलाके से बरामद हुए।

शुरुआती जांच नोएडा पुलिस के हाथ में थी, लेकिन मामले की संवेदनशीलता और राष्ट्रीय स्तर पर उठे जन आक्रोश को देखते हुए इसे सीबीआई को सौंपा गया। सीबीआई ने तह तक जाने की कोशिश की, आरोपियों को पकड़ने का दावा किया और सुरेंद्र कोली व पंढेर के खिलाफ आरोपपत्र दाखिल किए। लेकिन जैसे-जैसे न्याय प्रक्रिया आगे बढ़ी, मामला जटिल होता चला गया। कई तकनीकी कानूनी बिंदुओं और सबूतों की स्वीकार्यता को लेकर आरोपियों को राहत मिलती रही।

सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान सीबीआई और पीड़ितों के वकीलों ने कहा कि आरोपियों की निशानदेही पर ही बच्चों के अवशेष और सामान बरामद हुआ था। लेकिन कोर्ट ने साक्ष्य अधिनियम की धारा 27 के तहत स्पष्ट किया कि केवल वही बयान और बरामदगी साक्ष्य माने जाएंगे जो कानूनी प्रक्रिया में पारदर्शिता के साथ दर्ज किए गए हों और जिनका प्रत्यक्ष संबंध अपराध से हो।

सुप्रीम कोर्ट ने इस आधार पर याचिकाएं खारिज कीं कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने सभी सबूतों और कानूनी पहलुओं का समुचित मूल्यांकन करने के बाद कोली और पंढेर को दोषमुक्त करार दिया था। अदालत ने यह भी कहा कि पुनर्विचार याचिका में यह साबित नहीं किया जा सका कि उच्च न्यायालय ने कोई कानूनी चूक की है।

यह फैसला केवल एक कानूनी प्रक्रिया की समाप्ति भर नहीं है, बल्कि उस सामाजिक न्याय की असफलता का प्रतीक है जिसकी आशा पीड़ितों के परिजन अब भी लगाए बैठे थे। निठारी कांड सिर्फ एक अपराध नहीं था, वह एक सामाजिक अन्याय की कहानी थी…जहां गरीब बच्चों की आवाजें पहले नजरअंदाज की गईं और अब न्यायपालिका के दरवाजे से भी लौटा दी गईं।

इस फैसले से यह भी सवाल उठता है कि क्या हमारी न्याय प्रणाली उन कमजोर तबकों के लिए उतनी ही प्रभावशाली है जितनी किसी प्रभावशाली के लिए? क्या कानून की सीमाएं उन पीड़ितों को न्याय से वंचित नहीं कर रहीं जिनके पास न पैसा है, न ताकत, न राजनीतिक पहुंच?

अब जब देश की सर्वोच्च अदालत ने अंतिम मुहर लगा दी है तो यह आवश्यक हो जाता है कि हम निठारी जैसे मामलों से सबक लें। एक ओर कानूनी प्रक्रियाओं को मजबूत करें तो दूसरी ओर ऐसी सामाजिक संरचना विकसित करें जिसमें गरीब की आवाज़ अनसुनी न रहे।

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