अमेरिका-चीन टैरिफ टकराव में बदलती तारीखें और छिपी मजबूरियां…

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप एक ओर वैश्विक मंच पर सख्ती का संदेश देने की कोशिश कर रहे हैं, तो दूसरी ओर चीन के साथ टैरिफ युद्ध में बार-बार पीछे हटना उनकी आर्थिक और रणनीतिक दुविधाओं को उजागर कर रहा है
Khabari Chiraiya Desk: अमेरिका और चीन के बीच व्यापारिक तनाव कोई नई कहानी नहीं है, लेकिन हाल के घटनाक्रम ने इस टकराव को और दिलचस्प बना दिया है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप लगातार इस बात का प्रदर्शन कर रहे हैं कि वे हर देश पर टैरिफ लगाने से पीछे नहीं हटेंगे। रूस से तेल आयात करने पर भारत पर 25% अतिरिक्त टैरिफ लगाना इसका ताजा उदाहरण है। लेकिन जब बात चीन की आती है, तो तस्वीर अचानक बदल जाती है।
चीन, जो रूस से सबसे बड़ा तेल खरीदार है, उस पर अतिरिक्त टैरिफ लगाने की घोषणा के बावजूद, अमेरिका ने एक बार फिर 90 दिनों की मोहलत दे दी है। यह दूसरी बार है जब ट्रंप प्रशासन ने चीन पर नई टैरिफ दर लागू करने की तारीख आगे बढ़ाई है। इस बार की डेडलाइन 9 नवंबर तय की गई है। फिलहाल, अमेरिका चीन पर 30% टैरिफ लागू रखे हुए है, लेकिन जिस 245% तक की दर की धमकी दी गई थी, वह अभी भी कागजों तक सीमित है।
इस बार-बार टलती कार्रवाई के पीछे कई परतें हैं। पहली परत आर्थिक है…चीन पर भारी-भरकम टैरिफ लगाना अमेरिकी उपभोक्ताओं और कंपनियों के लिए महंगा सौदा साबित हो सकता है। खासकर जब चीन अमेरिकी टेक्नोलॉजी और मैन्युफैक्चरिंग सप्लाई चेन में गहरे तक जुड़ा है। रक्षा उद्योग इसका बड़ा उदाहरण है। जब पहली बार टैरिफ लगाया गया, चीन ने दुर्लभ खनिजों की आपूर्ति रोक दी, जिसका सीधा असर अमेरिका की डिफेंस कंपनियों पर पड़ा और हथियार निर्यात की गति प्रभावित हुई।
दूसरी परत राजनीतिक है…ट्रंप के उप-राष्ट्रपति जेडी वेंस ने खुद स्वीकार किया है कि चीन पर टैरिफ लगाना एक मुश्किल और राजनीतिक रूप से संवेदनशील फैसला है। चुनावी माहौल में ऐसा कोई कदम उठाना, जो अमेरिकी अर्थव्यवस्था पर तत्काल नकारात्मक असर डाले, ट्रंप प्रशासन के लिए जोखिमभरा हो सकता है।
तीसरी परत रणनीतिक है…अमेरिका और चीन की प्रतिद्वंद्विता केवल व्यापारिक नहीं, बल्कि वैश्विक ताकत की होड़ का हिस्सा है। अमेरिका जानता है कि चीन झुकने वाला नहीं है, बल्कि पलटवार करेगा। 125% टैरिफ की चीनी चेतावनी और राष्ट्रीय हितों के नाम पर लिए गए उनके फैसले इस बात को साबित करते हैं।
इन सभी कारणों से टैरिफ पर “तारीख पर तारीख” का सिलसिला जारी है। बाहर से देखने पर यह अमेरिका की मजबूती का प्रदर्शन लगता है, लेकिन भीतर से यह उसकी झिझक और दबाव का प्रमाण है। चीन के साथ टकराव में ट्रंप प्रशासन चाहे जितनी बड़ी-बड़ी बातें करे, व्यवहार में वह हर बार डेडलाइन बढ़ाकर समय खरीदने की कोशिश कर रहा है।
आखिरकार, यह खेल सिर्फ दो अर्थव्यवस्थाओं के बीच शुल्क दरों का नहीं है…यह एक बड़े भू-राजनीतिक संघर्ष का हिस्सा है, जिसमें हर मोहरा आर्थिक, सैन्य और कूटनीतिक दबावों से संचालित हो रहा है। ट्रंप की तारीख बढ़ाने की रणनीति यह संकेत देती है कि अमेरिका अभी भी इस संघर्ष में “आखिरी वार” करने की स्थिति में नहीं है और शायद आने वाले समय में भी यह टकराव पूरी तरह खत्म नहीं होगा, बल्कि बदलते रूपों में जारी रहेगा।
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