बाढ़ से बेहाल उत्तर भारत की ज़िंदगी

पंजाब के लगभग दो हजार गांव पानी में डूबे हैं, 46 लोगों की जान जा चुकी है और सवा लाख हेक्टेयर फसल पूरी तरह बर्बाद हो गई है, हिमाचल और उत्तराखंड में सड़कें टूटीं, पुल बह गए और हजारों परिवार विस्थापित
Khabari Chiraiya Desk : उत्तर भारत इस समय बाढ़ की विभीषिका से जूझ रहा है। पंजाब, हिमाचल, उत्तराखंड और राजस्थान के साथ बिहार तक इंद्रदेव के प्रकोप ने खेत-खलिहान डुबो दिए हैं। पंजाब के 23 जिलों के करीब दो हजार गांव पानी में डूबे हैं, अब तक 46 लोगों की मौत हो चुकी है और सवा लाख हेक्टेयर से अधिक फसल पूरी तरह चौपट हो गई है। राहत और बचाव कार्य जारी हैं, लेकिन सवाल उठता है कि हर साल होने वाली इस त्रासदी से आखिर कब स्थायी सबक लिया जाएगा। मौसम विभाग की ताज़ा चेतावनियां बताती हैं कि आने वाले दिनों में हालात और बिगड़ सकते हैं।
उत्तर भारत का यह संकट केवल भारी बारिश की कहानी नहीं है, बल्कि हमारी नीतिगत और प्रशासनिक कमियों का आईना भी है। मानसून हर साल आता है, कभी कमजोर तो कभी प्रचंड। लेकिन जब बाढ़ जैसी आपदा हर बार जनजीवन को तहस-नहस करती है, तो यह मान लेना होगा कि समस्या सिर्फ बादलों से नहीं, बल्कि हमारी तैयारियों की कमी से भी है। पंजाब में प्रधानमंत्री का प्रस्तावित दौरा इस बात का संकेत है कि आपदा बड़ी है, लेकिन केवल दौरे और मुआवज़े की घोषणा से किसानों और गांवों का दर्द नहीं मिटेगा। ज़रूरत है ठोस, दीर्घकालिक योजना की।
फसल बर्बादी के आंकड़े चौंकाने वाले हैं। जिस खेत में हरे-भरे धान और मक्के की बालियां लहरानी चाहिए थीं, वहां अब कीचड़ और मलबा है। किसान का साल भर का श्रम बह गया है। ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर इसका असर महीनों तक महसूस किया जाएगा। राहत शिविरों में भीड़ है, पीने का पानी और दवाओं की कमी है, छोटे बच्चे और बुजुर्ग सबसे अधिक प्रभावित हैं। प्रशासन के सामने दोहरी चुनौती है-लोगों की जान बचाना और उनकी आजीविका को पटरी पर लाना।
इसी बीच भारतीय मौसम विज्ञान विभाग की चेतावनियां राहत की उम्मीद को और कम कर देती हैं। आने वाले दिनों में उत्तराखंड, हिमाचल, राजस्थान, गुजरात, हरियाणा, दिल्ली और यूपी में भारी बारिश की संभावना जताई गई है। इसका मतलब है कि पहले से डूबे इलाकों में पानी और बढ़ सकता है और नए क्षेत्र भी खतरे में आ सकते हैं। ऐसी स्थिति में केवल तत्काल राहत पर्याप्त नहीं, बल्कि पहले से ही संवेदनशील इलाकों में अलर्ट और ठोस व्यवस्थाएं होनी चाहिए थीं।
हर साल यही कहानी दोहराई जाती है। नदियों का तटबंध कमजोर पड़ता है, नालों पर अतिक्रमण होता है, बांधों से अचानक पानी छोड़ा जाता है और फिर बाढ़ ‘प्राकृतिक आपदा’ घोषित कर दी जाती है। लेकिन सच्चाई यह है कि यह आधी आपदा इंसानी लापरवाही से जन्म लेती है। सरकारों को यह समझना होगा कि आपदा प्रबंधन केवल नाव और राशन पहुंचाने तक सीमित नहीं होना चाहिए। इसके लिए दीर्घकालिक नीतियां बनानी होंगी-नदी-तटों की सफाई, बांध प्रबंधन में पारदर्शिता, बाढ़ क्षेत्र में निर्माण पर कड़े प्रतिबंध और जलनिकासी की वैज्ञानिक योजना अनिवार्य हो।
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