जनसंख्या पर अमित शाह के ट्वीट से मची सियासी हलचल

- पवन खेड़ा बोले-गृह मंत्री 11 साल से क्या कर रहे थे?जनगणना के आंकड़ों पर सियासत तेज, सवाल उठा कि आंकड़े बहस के लिए हैं या भड़काने के लिए
Khabari Chiraiya Desk : देश में जनगणना के आंकड़े अब महज़ सामाजिक अध्ययन का विषय नहीं रहे, बल्कि वे राजनीतिक विमर्श का सबसे तेज़ हथियार बन चुके हैं। केंद्रीय गृह एवं सहकारिता मंत्री अमित शाह के ट्वीट ने इस बात को एक बार फिर साबित कर दिया है। शाह ने X (पूर्व में ट्विटर) पर एक पोस्ट में लिखा कि 1951 से 2011 तक मुस्लिम जनसंख्या में जो लगातार वृद्धि हुई है, वह “घुसपैठ” का नतीजा है। उन्होंने बताया कि 1951 में हिंदू जनसंख्या 84% और मुस्लिम 9.8% थी, जबकि 2011 में हिंदू घटकर 79% और मुस्लिम बढ़कर 14.2% हो गए। शाह के मुताबिक, वर्तमान में मुस्लिम आबादी 24.6% तक पहुंच चुकी है जो चिंता का विषय है। हालांकि, यह ट्वीट कुछ ही घंटे बाद हटा दिया गया, लेकिन राजनीतिक हलचल थमने का नाम नहीं ले रही।
कांग्रेस प्रवक्ता पवन खेड़ा ने इस पर तीखा पलटवार करते हुए कहा कि सहकारिता मंत्री का यह बयान “असहकारिता की पराकाष्ठा” है। उन्होंने X पर लिखा, “गृह मंत्री ने हिंदू-मुस्लिम विवाद को हवा देने और आगामी चुनावों से पहले मतदाताओं का ध्रुवीकरण करने की कोशिश की है।” खेड़ा ने सवाल उठाया कि अगर मुस्लिम जनसंख्या वास्तव में “घुसपैठ” के कारण बढ़ी है तो गृह मंत्रालय पिछले 11 सालों में क्या कर रहा था? उन्होंने इसे सरकार की नाकामी और चुनावी रणनीति का हिस्सा बताया।
यह पूरा विवाद केवल एक ट्वीट या बयान तक सीमित नहीं है। यह उस गहराई को दिखाता है जहां देश में तथ्यों से ज्यादा भावनाएं राजनीति की दिशा तय करने लगी हैं। जनगणना के आंकड़े देश की सामाजिक तस्वीर को समझने और नीतियां बनाने के लिए होते हैं, लेकिन जब वही आंकड़े धर्म और पहचान की राजनीति के औज़ार बन जाएं तो समाज में दरारें गहराती हैं।
भारत की ताकत उसकी विविधता और संतुलन में रही है। यदि कहीं जनसंख्या का अनुपात बदल रहा है तो उसे वैज्ञानिक, नीतिगत और मानवीय दृष्टिकोण से समझने की ज़रूरत है न कि मंचों और सोशल मीडिया पर बयानबाज़ी से। गृह मंत्री का पद केवल सुरक्षा का प्रतीक नहीं, बल्कि संयम का भी प्रतीक होता है।
ऐसे में यह आवश्यक है कि जनसंख्या या घुसपैठ जैसे गंभीर विषयों को राजनीतिक हथियार न बनाया जाए। आंकड़े बहस के लिए हैं, उकसाने के लिए नहीं। क्योंकि जब सत्ता के गलियारों से समाज की रेखाएं खींची जाने लगती हैं तो लोकतंत्र के रंग फीके पड़ने लगते हैं।
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