मुजफ्फरपुर : नारा बदलता है, चेहरा वही रहता है
- यही है मुजफ्फरपुर की राजनीति। एक ही उम्मीदवार कभी राजद तो कभी जदयू, कभी लोजपा तो कभी भाजपा के मंच पर नज़र आता है
Khabari Chiraiya Desk: पुराने मुजफ्फरपुर जिले के संदर्भ में कहा जाए तो यह भूमि गणतंत्र की प्राचीन भूमि लिच्छवी गणराज्य का हिस्सा रही है। इतिहास की यही धरती आज के दौर में सर्वदलीय राजनीति और सर्वदलीय नेताओं के लिए भी जानी जाती है। मेरे विचार से कुछ लोगों को इससे ऐतराज हो सकता है, फिर भी यह मेरी राय है। मुजफ्फरपुर में बाबू रघुनाथ पांडे के जमाने से ही पक्ष और विपक्ष की मित्रता की कहानियां सुनाई जाती रही हैं। आज की तारीख में उनकी जगह बाबू दिनेश सिंह की चर्चा आमतौर पर सुनने को मिलती है। इसके पीछे कारण भी हैं और कई तथ्य भी।
बाबू दिनेश सिंह जनता दल (यूनाइटेड) के विधान पार्षद हैं। उनकी पत्नी 2020 से लोक जनशक्ति पार्टी की टिकट पर सांसद हैं। वे इससे पहले राष्ट्रीय जनता दल के टिकट पर विधान परिषद का चुनाव भी लड़ चुकी हैं और 2010 में भारतीय जनता पार्टी की टिकट पर गायघाट से विधायक भी रही हैं। बाबू दिनेश सिंह खुद भी पहले राष्ट्रीय जनता दल में थे और उनकी पत्नी से चुनाव हारने वाले आरजेडी के कद्दावर नेता रघुवंश प्रसाद सिंह के काफी करीबी रहे हैं। वर्तमान में उनकी पुत्री कोमल सिंह जनता दल (यू) की टिकट पर गायघाट से उम्मीदवार हैं।
इसी तरह, मुजफ्फरपुर की राजनीति में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता बाबू रघुनाथ पांडे को 1995 में जनता दल के टिकट पर हराने वाले विजेंद्र चौधरी का राजनीतिक सफर भी कई दलों से होकर गुजरा। 2000 में वे राष्ट्रीय जनता दल से चुनाव लड़े, तो 2005 में निर्दलीय प्रत्याशी बने। उस समय उन्होंने एनडीए का समर्थन किया, लेकिन किसी भी पार्टी का चुनाव चिन्ह नहीं लिया। 2010 के चुनाव में वे मुजफ्फरपुर के बजाय कुढ़नी से लोक जनशक्ति पार्टी की टिकट पर यूपीए उम्मीदवार बने, लेकिन एनडीए और जदयू के प्रत्याशी मनोज कुशवाहा से हार गए। 2015 में उन्होंने फिर से मुजफ्फरपुर से जनता दल यूनाइटेड और यूपीए गठबंधन के उम्मीदवार के तौर पर चुनाव लड़ा, पर भाजपा के सुरेश शर्मा से पराजित हुए। 2020 में वे कांग्रेस की टिकट पर चुनाव मैदान में उतरे और इस बार विजयी रहे।
यदि मुजफ्फरपुर के उम्मीदवारों के इतिहास को देखा जाए तो बहुत से ऐसे चेहरे मिलेंगे जो राजनीति के हर घाट का पानी पी चुके हैं। 1957 से लेकर आज तक महामाया बाबू से लेकर विजेंद्र चौधरी तक का इतिहास इसका साक्षी है। महेश बाबू भले कांग्रेस में नहीं रहे, लेकिन महामाया बाबू ने अपने राजनीतिक जीवन में कई दलों का अनुभव किया।
मुजफ्फरपुर की लोकतांत्रिक भूमि पर न सिर्फ उम्मीदवारों ने चुनाव जीतने के लिए झंडे और चुनाव चिन्ह बदले हैं, बल्कि नीति, सिद्धांत और विचारधारा भी कई बार हाशिये पर चली गई है। इस मामले में तो राज्य के मुख्यमंत्री खुद एक बड़ा उदाहरण साबित हुए हैं।
2025 के विधानसभा चुनाव को ही देख लीजिए-गायघाट से निर्दलीय और लोजपा के समर्थन से चुनाव लड़ने वाली कोमल सिंह इस बार जनता दल यूनाइटेड की उम्मीदवार हैं। मीनापुर से अजय कुशवाहा, जो पिछले चुनाव में लोक जनशक्ति पार्टी के उम्मीदवार थे, इस बार जदयू के प्रत्याशी हैं। औराई से अजय निषाद की पत्नी राम निषाद, जो पहले कांग्रेस में थीं, अब भाजपा की उम्मीदवार हैं। वहीं भाजपा की पूर्व विधायक बेबी कुमारी इस बार लोक जनशक्ति पार्टी की टिकट पर मैदान में हैं।
बोचहा से अमर पासवान के पिता मुसाफिर पासवान ने भी अपने राजनीतिक जीवन में जदयू और राजद दोनों का दामन थामा था। पारू में भाजपा के अशोक सिंह इस बार निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में मैदान में हैं, जबकि निर्दलीय चुनाव लड़ चुके शंकर यादव इस बार राजद से उम्मीदवार हैं। 2020 में वीआईपी पार्टी से चुनाव लड़ने वाले और वर्तमान में मंत्री राजू कुमार सिंह इस बार भाजपा के उम्मीदवार हैं। कांटी से निर्दलीय चुनाव लड़ने वाले अजीत कुमार अब जनता दल यूनाइटेड के टिकट पर हैं। इससे पहले वे भाजपा में थे और उससे भी पहले ‘हम’ (हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा) में रह चुके हैं। 2005 और 2010 में वे जदयू के विधायक रहे थे।
ये सभी उदाहरण मुजफ्फरपुर की सर्वदलीय राजनीति की मिसाल हैं। इस जिले की एक और विशेषता यह रही है कि यहां के विभिन्न दलों ने पिछले कुछ दशकों में व्यवसायियों को जनप्रतिनिधि के रूप में अधिक अवसर दिए हैं। विजेंद्र चौधरी, सुरेश शर्मा और वर्तमान भाजपा उम्मीदवार रंजन कुमार इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। बाबू दिनेश सिंह भी परिवहन व्यवसाय से जुड़े रहे हैं। बाबू रघुनाथ पांडे का भी परिवहन कारोबार से नाता रहा था।
कई राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि मुजफ्फरपुर की राजनीति में जमीन और शराब कारोबारियों की भूमिका हमेशा से प्रभावशाली रही है और इसका सीधा असर चुनावी समीकरणों पर पड़ा है। एक समय मीनापुर के पूर्व विधायक हिंद केसरी यादव ने मुजफ्फरपुर कलेक्ट्रेट परिसर में जहरीली शराब कांड के विरोध में प्रदर्शन किया था, जिस दौरान उन पर जानलेवा हमला हुआ और जमकर पिटाई की गई। यह घटना आज भले इतिहास का हिस्सा बन चुकी हो, लेकिन अगर उम्मीदवारों की “कुंडली” में जमीन और शराब कारोबार से जुड़े पहलुओं को देखा जाए तो एक लंबी सूची तैयार की जा सकती है।
यदि आप विभिन्न राजनीतिक दलों की कुंडली में जाकर उनके अध्यक्षों और प्रमुख नेताओं के राजनीतिक इतिहास को खंगालें तो कई रोचक तथ्य सामने आएंगे। कुल मिलाकर, मुजफ्फरपुर की राजनीति में दलीय निष्ठा और नीति-सिद्धांत की बात करें तो ऐसे नेता बहुत कम हैं जो लगातार एक ही विचारधारा में टिके रहे हों। अपने पिता की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए अपनी पार्टी में रहकर चुनाव लड़ने वाले सकरा के कांग्रेस प्रत्याशी उमेश राम जैसे नेता आज दुर्लभ हैं।
चलते-चलते यह जान लीजिए कि कांटी के राजद प्रत्याशी ईसराइल मंसूरी और गायघाट के राजद उम्मीदवार निरंजन राय भी पहले जनता दल यूनाइटेड में थे। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि मुजफ्फरपुर की राजनीति पृथ्वी की तरह गोल-गोल घूमती रहती है-चेहरे वही, बस झंडे और चुनावी प्रतीक बदलते रहते हैं।
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