December 20, 2025

खबरी चिरईया

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गरीबों की गारंटी या राजनीतिक पहचान की लड़ाई

  • सरकार ने रोजगार योजना को नए नाम के साथ पेश किया। विपक्ष का कहना है कि सुधार के बजाय पहचान मिटाई जा रही है

Khabari Chiraiya Desk: संसद के मौजूदा सत्र में जो कुछ हुआ, उसने लोकतांत्रिक प्रक्रिया और गरीबों की योजनाओं को लेकर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं। विपक्षी दलों के तीखे हंगामे, कागज फाड़े जाने की घटनाओं और आधी रात तक चली बहस के बीच सत्ता पक्ष ने एक ही दिन में मनरेगा का नाम बदलने वाली नई योजना विकसित भारत गारंटी फॉर रोजगार एंड आजीविका मिशन (ग्रामीण) यानी वीबी जी राम जी बिल को संसद के दोनों सदनों से पारित करा लिया। जिस कानून का सीधा असर देश के सबसे गरीब तबके पर पड़ता है, उसे इतनी जल्दबाजी में पारित करना अपने आप में कई आशंकाओं को जन्म देता है।

राज्यसभा में इस दौरान विपक्ष के नेता और कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे का भाषण केवल राजनीतिक नहीं, बल्कि नैतिक चेतावनी के रूप में सामने आया। उन्होंने अपनी मां और भारत मां की कसम खाकर कहा कि यह कानून गरीबों के हित में नहीं है। उन्होंने यह भी याद दिलाया कि उन्होंने अपनी मां को बचपन में खो दिया, लेकिन निजी पीड़ा से ऊपर उठकर वह इस कानून का विरोध कर रहे हैं। उनका साफ आग्रह था कि इस विधेयक को वापस लिया जाए और सेलेक्ट कमेटी को भेजा जाए, ताकि इसके हर पहलू की गंभीर जांच हो सके। सरकार ने इस मांग को नकारते हुए विधेयक पारित करा दिया।

खरगे ने यह भी चेताया कि जिस तरह तीन कृषि कानूनों को जन आंदोलन के दबाव में वापस लेना पड़ा था, उसी तरह एक दिन सरकार को इस कानून को भी वापस लेना पड़ेगा। उन्होंने सवाल किया कि क्या सरकार फिर ऐसा माहौल चाहती है, जब लोग सड़कों पर उतरें, आंदोलन करें, गोलियों का सामना करें और जान गंवाएं। उनका कहना था कि गरीबों को दिखाए जा रहे सपने कभी पूरे नहीं होंगे और विपक्ष इस कानून के खिलाफ संघर्ष जारी रखेगा।

इस बहस का एक अहम पहलू यह भी है कि अगर सरकार की मंशा सचमुच गरीबों के कल्याण की होती, तो मनरेगा को समाप्त या नाम बदलने के बजाय उसे ही अपडेट किया जा सकता था। तकनीक, पारदर्शिता, भुगतान व्यवस्था या काम की प्रकृति में सुधार किए जा सकते थे। नाम बदलने की कोई अनिवार्यता नहीं थी। मनरेगा केवल एक योजना नहीं, बल्कि महात्मा गांधी के नाम से जुड़ा वह कानून है, जिसने रोजगार को अधिकार का रूप दिया। नाम बदलने की कोशिश यह संकेत देती है कि सरकार न केवल योजना की पहचान बदलना चाहती है, बल्कि उस राजनीतिक विरासत को भी मिटाना चाहती है, जिससे यह योजना जुड़ी है। यह तथ्य भी अनदेखा नहीं किया जा सकता कि मनरेगा की स्थापना कांग्रेस सरकार के कार्यकाल में हुई थी और नाम परिवर्तन के जरिए उस इतिहास को भी धुंधला करने की कोशिश दिखाई देती है।

खरगे ने इसी संदर्भ में प्रधानमंत्री के पुराने बयानों को याद दिलाया। उन्होंने 27 फरवरी 2015 का उल्लेख किया, जब राष्ट्रपति के अभिभाषण पर बहस के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि उनकी राजनीतिक समझ कहती है कि मनरेगा को बंद नहीं करना चाहिए। उस समय इसे कांग्रेस की नाकामियों का स्मारक बताया गया था, लेकिन साथ ही यह भी कहा गया था कि इसे बचाकर रखा जाएगा। खरगे ने सवाल उठाया कि अगर मनरेगा इतनी ही विफल योजना थी तो फिर 16 दिसंबर 2025 को लोकसभा में सरकार ने इसे सफल योजना क्यों माना।

नीति आयोग के अध्ययन का हवाला देते हुए उन्होंने बताया कि मनरेगा से जल सुरक्षा में सुधार हुआ, मिट्टी संरक्षण को बढ़ावा मिला, जमीन की उत्पादकता बढ़ी और करोड़ों गरीब परिवारों की आजीविका सुरक्षित हुई। ऐसे में सवाल उठता है कि एक सफल और स्थापित योजना को नए नाम और नए ढांचे में ढालने की आवश्यकता आखिर क्यों महसूस की गई।

विधेयक संसद से पारित भले ही हो गया हो, लेकिन इसका विरोध थमा नहीं है। कई विपक्षी सांसदों ने संसद के बाहर रात भर प्रदर्शन कर यह स्पष्ट कर दिया कि यह लड़ाई केवल संसद के भीतर नहीं रहेगी। यह संघर्ष इस बात को लेकर है कि रोजगार को अधिकार के रूप में देखा जाए या सत्ता की शर्तों पर दी जाने वाली गारंटी के रूप में।

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