जब बादल बरसे और व्यवस्था भीग गई

- सवाल यह है कि हम कितने तैयार हैं और क्या सरकार की तैयारी हर साल सिर्फ दिखावे तक ही सीमित रहेगी?
Khabari Chiraiya Desk नई दिल्ली : मानसून का आना सामान्य बात है, लेकिन उसका संकट बन जाना एक असामान्य और चिंताजनक स्थिति है। बीते कुछ वर्षों से हम लगातार देख रहे हैं कि वर्षा राहत के बजाय विनाश की दहलीज बनकर उतर रही है और इस साल भी तस्वीर कुछ वैसी ही है बल्कि कहीं अधिक भयावह। देश के कई राज्यों में बारिश ने जनजीवन को पटरी से उतार दिया है। हिमालय की गोद से लेकर रेगिस्तान की छांव तक, हर दिशा से चीखते हुए दृश्य आ रहे हैं। कहीं मलबे में दबी ज़िंदगियाँ हैं, कहीं जलमग्न खेत तो कहीं पानी से भरे शहर जिनकी सड़कों पर अब सिर्फ गड्ढे और जाम दिखते हैं।
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उत्तरकाशी, जहां बादल फटा और पूरा गांव बह गया, वह सिर्फ एक समाचार नहीं है। वह उस लापरवाही की निशानी है जो हमने सालों से पहाड़ी क्षेत्रों में निर्माण के नाम पर पाले हैं। केदारनाथ हाईवे एक बार फिर ठप पड़ा है, भूस्खलन से। हिमाचल में मंडी जैसे जिले मौत का आंकड़ा गिन रहे हैं। क्या हमने कुछ नहीं सीखा 2013 की त्रासदी से?
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पूर्वी भारत में कहानी और भी खौफनाक है। बिहार और उत्तर प्रदेश के सीमावर्ती इलाके, जहां नेपाल से निकलने वाली नदियां जीवन देती थीं, वे आज खेतों को लील रही हैं। फसलें चौपट हैं, गांव उजड़ रहे हैं। उधर प्रयागराज, वाराणसी और लखनऊ जैसे शहरों में गंगा-यमुना खतरे के निशान से ऊपर हैं। प्रशासन के पास नावें हैं, राहत है, लेकिन दूर तक नहीं पहुंच रही। त्रिपुरा और असम जैसे पूर्वोत्तर राज्यों में तो हालात इतने बिगड़े हैं कि राहतकर्मी खुद राहत के मोहताज लगते हैं।
राजधानी दिल्ली भी इससे अछूती नहीं। जलभराव, ट्रैफिक जाम, गड्ढों से भरी सड़कें…क्या यही है स्मार्ट सिटी मॉडल? हर बार की तरह नगर निगम से लेकर पर्यावरण मंत्रालय तक जिम्मेदारियाँ एक-दूसरे पर डालने में लगे हैं। जबकि हकीकत यह है कि जल निकासी, तटबंधों की सुरक्षा, और आपदा प्रतिक्रिया जैसे बुनियादी ढांचे पर ध्यान ही नहीं दिया गया।
यह सिर्फ मानसून की बात नहीं है। यह जलवायु परिवर्तन की चेतावनी है, जो हर साल और तेज होती जा रही है। लेकिन हमारे नीति-निर्माता अभी भी आपदा के बाद “समीक्षा बैठक” और “मुआवज़ा वितरण” से आगे नहीं बढ़ पाए हैं।
सवाल है, कब तक हम सिर्फ आंकड़े गिनेंगे? कब तक तस्वीरों में बहती लाशें और डूबते घर हमारी चेतना को झकझोरने में विफल रहेंगे? अब वक्त है कि मानसून को सिर्फ मौसम न समझा जाए, बल्कि इसे एक रणनीतिक संकट के रूप में देखा जाए…जहां हर विभाग, हर सरकार और हर नागरिक की जिम्मेदारी तय हो।
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