September 5, 2025

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बिहार: पटना की सड़कों पर शांति की शुरुआत ‘नो हॉर्न डे’ से

No Horn Day
  • हर रविवार अनावश्यक हॉर्न पर रोक की पहल पटना को नए ट्रैफिक अनुशासन की ओर ले जाने का प्रयास है

Khabari Chiraiya Desk बिहार : शहर का शोर कोई प्राकृतिक नियति नहीं, हमारी सामूहिक आदतों का शोरगुल है और आदतें बदली जा सकती हैं। हर रविवार ‘नो हॉर्न डे’ का संकल्प पटना को यह याद दिलाने आया है कि सड़कें केवल वाहनों की गति के लिए नहीं, मनुष्यों की मानसिक शांति के लिए भी होती हैं। अनावश्यक हॉर्न से पैदा होने वाला शोर तनाव, चिड़चिड़ापन और स्वास्थ्य जोखिम बढ़ाता है; अस्पताल, स्कूल, मोहल्लों और वृद्धाश्रमों के आसपास इसकी मार सबसे ज्यादा पड़ती है। यह पहल महज़ एक दिन की चुप्पी नहीं, शहरी शिष्टाचार की वापसी है जहां संकेत की जगह चीख नहीं, धैर्य और संवाद काम करता है।

पटना की यातायात संस्कृति वर्षों में एक ऐसे स्वचालित व्यवहार में बदल गई है जिसमें जाम देखते ही हाथ अपने आप हॉर्न पर चला जाता है। यह उंगलियों की आदत दिमाग की बेचैनी में और सड़क की अराजकता में बदल जाती है। ‘नो हॉर्न डे’ उसी चक्र को तोड़ने का अभ्यास है, ट्रैफिक में रुकना अपमान नहीं, व्यवस्था का हिस्सा है; लेन अनुशासन, पैदल पारपथ का सम्मान और संकेतों की समझ शोर के बिना भी संभव है। रविवार का यह प्रशिक्षण-क्षेत्र कार्यदिवसों के लिए नए मानक गढ़ सकता है, बशर्ते नागरिक इसे अपनी रोज़ाना ड्राइविंग की भाषा बना लें।

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इस अभियान की सफलता के तीन टिकाऊ स्तंभ होने चाहिए…जन-भागीदारी, प्रवर्तन और बुनियादी ढांचा। जन-भागीदारी का अर्थ केवल अपील सुन लेना नहीं, रोज़मर्रा की छोटी प्रतिज्ञाएँ हैं: बिना वजह हॉर्न नहीं; ओवरटेक या पास देने के लिए इंडिकेटर और हाथ के संकेत; विद्यालयों-हॉस्पिटलों के पास ‘साइलेंस ज़ोन’ का स्वअनुशासन। प्रवर्तन का अर्थ दबाव हॉर्न और कटे हुए साइलेंसर जैसे शोर बढ़ाने वाले अवैध उपकरणों पर सख्त कार्रवाई, साथ ही चालान के साथ अनिवार्य जागरूकता सत्र। और ढांचे का मतलब…साफ़ लेन मार्किंग, ठीक-ठाक सिग्नल टाइमिंग, स्मार्ट चौराहे, पैदल पार के सुरक्षित द्वीप ताकि ड्राइवरों की बेसब्री का ‘औचित्य’ ही खत्म हो।

बोर्ड ने 2 अक्टूबर 2025 तक जागरूकता अभियान चलाने की बात कही है; यह समयसीमा केवल कैलेंडर की तारीख नहीं, मापने की समयरेखा होनी चाहिए। हर पखवाड़े चुनिंदा चौराहों पर डेसिबल मैपिंग, ‘हॉटस्पॉट’ की सार्वजनिक सूची और जहां सुधार दिखे वहां नागरिकों व ट्रैफिक कर्मियों का सम्मान ये संकेत देंगे कि शोर कम करना संभव है।

आख़िर में मुद्दा क़ानून बनाम आमजन नहीं, आदत बनाम विवेक का है। सड़क पर हमारा व्यवहार शहर की सामूहिक संवेदना गढ़ता है। पटना यदि ‘नो हॉर्न डे’ को अपनी रोज़मर्रा की ड्राइविंग व्याकरण में बदल दे तो यह पहल केवल आवाज़ कम नहीं करेगी, बातचीत का सुर भी बदल देगी जहां जल्दी का मतलब शोर नहीं।

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