तेजस्वी यादव की दो टूक-पटना के चक्कर काटने से टिकट नहीं मिलेगा

- असली कसौटी यह होगी कि कौन कितना जनता के बीच रहा और किसने भरोसा कायम किया
अरुण शाही, पटना
बिहार इस साल चुनावी दौर में प्रवेश कर चुका है। सत्ताधारी गठबंधन अपने चेहरे और एजेंडे को लेकर मतदाताओं के बीच उतरने की तैयारी में है, वहीं विपक्ष ने भी अपनी जमीन मजबूत करने का सिलसिला तेज कर दिया है। इसी परिदृश्य में राजद नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव का बयान खास महत्व रखता है। उन्होंने पार्टी विधायकों और पदाधिकारियों को स्पष्ट शब्दों में कहा कि पटना के चक्कर काटने से टिकट नहीं मिलेगा। असली कसौटी यह होगी कि कौन कितना जनता के बीच रहा और किसने भरोसा कायम किया।
यह वक्तव्य सामान्य नहीं है। बिहार की राजनीति लंबे समय से राजधानी की लॉबी और सिफारिशों के इर्द-गिर्द घूमती रही है। टिकट वितरण से लेकर पदस्थापन तक, पटना की गलियों का रसूख कई बार जनता के फैसले पर भारी पड़ता रहा। तेजस्वी का यह रुख उस संस्कृति को चुनौती देता है और संकेत देता है कि आगामी चुनाव में जनता की राय ही असली पैमाना होगी।
साफ शब्दों में कहें तो यह बयान चुनावी रणनीति का प्रारूप है। सर्वे और फीडबैक के आधार पर टिकट तय करने की बात, कमजोर प्रदर्शन पर चेतावनी और बूथ-स्तर पर तैयारी का आह्वान…ये सब मिलकर राजद की चुनावी तस्वीर को नया आकार देते हैं। दलित, वंचित और गरीब तबकों को प्राथमिकता देने की नीति भी इसी रणनीति का हिस्सा है। यह स्पष्ट है कि पार्टी इस बार वोटरों के वास्तविक आधार तक पहुंचना चाहती है।
राजनीतिक संदर्भ में यह भी महत्वपूर्ण है कि तेजस्वी ने नीतीश कुमार को “एजेंडा से बाहर” बताते हुए भाजपा को ही मुख्य प्रतिद्वंद्वी करार दिया। यह बदलाव बताता है कि विपक्ष अब अपनी लड़ाई को सीधी रेखा में रखना चाहता है। चुनावी समीकरणों में यह रुख राजद को एकमात्र विकल्प के रूप में पेश करने का प्रयास है।
तेजस्वी का यह कथन कि “सिर्फ सरकार नहीं बनानी है, बिहार को बदलना है” जनता के लिए एक बड़ा वादा है। यह नारा तभी सार्थक होगा जब उसके साथ रोजगार सृजन, शिक्षा-सुधार और स्वास्थ्य-व्यवस्था पर ठोस और समयबद्ध कार्यक्रम भी पेश किए जाएं। मतदाता अब नारों से आगे बढ़ चुका है; वह गारंटी और परिणाम चाहता है।
अंततः, तेजस्वी का पटना के चक्कर पर प्रहार केवल राजनीतिक बयान नहीं, बल्कि चुनावी संस्कृति को बदलने का दावा है। यदि यह बदलाव व्यवहार में भी उतरा तो बिहार की राजनीति नए मोड़ पर खड़ी होगी। लेकिन अगर यह सिर्फ शब्दों तक सीमित रह गया तो मतदाता इसे एक और चुनावी जुमला मानकर नज़रअंदाज़ कर देगा। आने वाले महीनों में यह साफ हो जाएगा कि यह बयान वास्तव में राजनीतिक साहस है या महज़ चुनावी रणनीति का हिस्सा।
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