December 21, 2025

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26 नवंबर 2008 : मुंबई की वह रात जिसने पूरे देश की रूह हिला दी थी

  • 26 नवंबर 2008 की रात सबसे भयावह थी, जिस शहर को कभी नहीं सोने वाला कहा जाता था, वही शहर गोलियों, धमाकों और चीखों के शोर में डूब गया था

✍️एनके मिश्रा✍️

मुंबई की चमकती रातें हमेशा जीवन, रफ्तार और उम्मीद का प्रतीक रही हैं, लेकिन 26 नवंबर 2008 की रात इस रोशनी पर भय की एक ऐसी परत चढ़ गई, जिसे पूरी दुनिया ने कंपकंपी के साथ महसूस किया। समुद्र के रास्ते आए दस आतंकियों ने शहर को मानो बंदूक की नोक पर उठा लिया था। मिनट दर मिनट फैलते हमले ने यह स्पष्ट कर दिया था कि यह कोई साधारण वारदात नहीं है, बल्कि एक गहरी और संगठित साजिश है, जिसका लक्ष्य भारत की आत्मा पर प्रहार करना था।

ताज होटल की गलियों में धुआं भर रहा था, ट्राइडेंट और नरीमन हाउस की छतें रोशनी नहीं, धमाकों से चमक रही थीं और छत्रपति शिवाजी महाराज टर्मिनस पर भागते लोगों की घबराहट से हवा भारी हो गई थी। शहर की नमी में समुद्री हवा नहीं बल्कि भय की गंध तैर रही थी। मुंबई का दिल उस रात भारी होता गया, लेकिन उसकी हिम्मत लगातार जागती रही।

यह हमला सिर्फ मुंबई पर नहीं था। यह हमला भारत की स्थिरता, उसके लोकतंत्र, उसकी बहु-आयामी सांस्कृतिक पहचान और उसकी शांतिपूर्ण नागरिक जीवनशैली पर था। लेकिन, इस अंधेरे के बीच कई चेहरे उभरे, जिन्होंने इस देश की असली तस्वीर दुनिया के सामने रख दी। मुंबई पुलिस के अधिकारी हेमंत करकरे, विजय सालस्कर, अशोक कामटे और तुकाराम ओम्बाले का बलिदान किसी भी शब्द से बड़ा है। तुकाराम ओम्बाले का साहस तो भारतीय इतिहास में स्वर्णाक्षरों में दर्ज हो चुका है, जिन्होंने निहत्थे होकर भी जीवित आतंकी को पकड़ लिया।

राष्ट्रीय सुरक्षा गार्ड और मरीन कमांडो का ऑपरेशन केवल सैन्य कार्रवाई नहीं था, बल्कि राष्ट्र की गरिमा की रक्षा थी। तीन दिनों की इस भीषण लड़ाई के अंत में जब आखिरी आतंकी ढेर हुआ, तब दुनिया ने समझा कि भारत का धैर्य सीमाहीन है।

लेकिन इस घटना ने यह भी बताया कि सुरक्षा इंतजामों में जो कमजोरियां थीं, उन्हें अब और नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। देश के समुद्री तटों की सुरक्षा, त्वरित प्रतिक्रिया बलों की गति, संचार नेटवर्क की मजबूती और संवेदनशील स्थानों की सुरक्षा-इन सबमें व्यापक सुधार की जरूरत थी। 26 नवंबर के बाद भारत ने इन मोर्चों पर नई योजना और नई रणनीति के साथ ठोस कदम उठाए।

इस हमले ने मुंबई की पहचान को चोट तो पहुंचाई, लेकिन उसे बदल नहीं पाया। हमले के अगले ही दिन जब लोग अपने काम पर लौटे, तब यह समझ में आया कि शहर सिर्फ इमारतों से नहीं बनता, बल्कि उसके लोगों की जिद, हिम्मत और अनथक जीवनशैली उसे खड़ा रखती है। मुंबई ने दुनिया को बताया कि आतंक का उद्देश्य भय फैलाना होता है, लेकिन भारत का स्वभाव भय से ऊपर उठकर जीना है।

आज उस रात को याद करना केवल दुख को दोहराना नहीं है, बल्कि यह समझना भी है कि सुरक्षा किसी भी राष्ट्र की प्राथमिक ज़िम्मेदारी है। आतंकवाद के स्वरूप बदल रहे हैं, उसकी तकनीक बदल रही है, लेकिन भारत भी पहले से अधिक एकजुट और सक्षम है। 26 नवंबर की यह तिथि हमें हर साल याद दिलाती है कि खतरे कभी पूरी तरह समाप्त नहीं होते, इसलिए सतर्कता और तैयारी ही सबसे बड़ा हथियार है।

मुंबई उस रात घायल जरूर हुई थी, पर विजयी होकर उभरी। वही भावना आज भी हर भारतीय के दिल में जिंदा है। यही वह शक्ति है जो देश को आगे बढ़ाती है और यही इस दिन का सबसे मजबूत संदेश है।

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