बिहार: कुर्सी बदलती रही, लेकिन सत्ता की चाबी हमेशा नीतीश के हाथ रही
- उनकी राजनीतिक यात्रा इसी असाधारण कौशल का प्रमाण है कि समीकरण टूटे और बने, लेकिन वे हर बार सत्ता के केंद्र में लौट आए
Khabari Chiraiya Desk: बिहार की राजनीति में नीतीश कुमार का सफर किसी सामान्य नेता का सफर नहीं है। यह उस व्यक्ति की कहानी है, जिसने राजनीति को सिर्फ अवसरों की तलाश के रूप में नहीं, बल्कि परिस्थिति-प्रबंधन की उच्च कला के रूप में जिया। 1985 से शुरू हुआ यह राजनीतिक अध्याय 40 वर्षों की लंबी पगडंडी पर चलता हुआ आज ऐसे मोड़ पर खड़ा है, जहां नीतीश न सिर्फ बिहार के सबसे अनुभवी मुख्यमंत्री हैं, बल्कि सबसे अधिक शपथ लेने वाले भारतीय नेताओं में भी शामिल हो चुके हैं। 25 बार शपथ लेना किसी राजनीतिक पद का रिकॉर्ड भर नहीं, बल्कि इस बात का संकेत है कि सत्ता उनके हाथों में चाहे जैसे आए-वह टिकती जरूर है।
नीतीश कुमार की यात्रा को समझने के लिए यह जानना जरूरी है कि इस पूरी अवधि में उन्होंने सिर्फ मुख्यमंत्री की कुर्सी को नहीं अपनाया, बल्कि संसद, मंत्रालय, विधान परिषद और विधायक जैसे तमाम पदों पर अलग-अलग मौके पर शपथ ली। यह विविधता बताती है कि वे स्थिरता के नहीं, गतिशीलता के नेता हैं। राजनीति की नदी बहती रहे, पर नेतृत्व का पतवार हमेशा उनके हाथ में रहे-यह उनकी शैली का केंद्र रहा है।
सबसे दिलचस्प तथ्य यह है कि बिहार के सबसे लंबे समय तक मुख्यमंत्री रहने वाले नीतीश कुमार विधायक सिर्फ एक बार बने। 1985 में हरनौत सीट से पहली बार विधायक के रूप में शपथ ली और फिर कभी उस सदन में दोबारा प्रवेश नहीं किया। विधानसभा से अधिक लोकसभा और मंत्रिमंडल का रास्ता उन्होंने चुना, जिसने उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर भी महत्वपूर्ण बनाया। 1989 से 2004 तक छह बार सांसद के रूप में शपथ लेकर उन्होंने दिल्ली की राजनीति में भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराई। इस दौरान चार बार केंद्रीय मंत्री पद की शपथ-रेल से लेकर कृषि तक…उन्हें राष्ट्रीय नेतृत्व का अहम हिस्सा बनाती रही।
लेकिन नीतीश की सबसे बड़ी पहचान दिल्ली नहीं, पटना की राजनीति में गढ़ी गई। लंबे समय तक लालू यादव के शासन के बाद जब बिहार बदलाव की तलाश में था, नीतीश कुमार ने सुशासन की अवधारणा को राजनीतिक पूंजी बना दिया। सत्ता की भाषा बदल दी, गठबंधन की परिभाषा बदल दी और बिहार की राजनीतिक दिशा भी। उनकी यही समझ बिहार की राजनीति का स्थायी केंद्र उन्हें बनाती है। विपक्ष होता है, गठबंधन बदलते हैं, नीतियां बदली जाती हैं, पर केंद्र में खड़ा चेहरा वही रहता है-नीतीश कुमार।
उनके शासन की विशेषता यह रही कि उन्होंने अवसरवाद को रणनीति में बदला, सौदेबाज़ी को संतुलन में और राजनीतिक जोखिम को नए अवसर की राह में। जब लगा कि भाजपा के साथ रहना बेहतर है, वे रहे। जब महागठबंधन प्रासंगिक लगा, उसमें शामिल हुए। यह बार-बार बदलने वाली गठबंधन राजनीति भले कई लोगों को अस्थिरता लगे, लेकिन नीतीश के लिए यह सत्ता-प्रबंधन का एक गणित है, जिसमें स्थिर रहने की जिम्मेदारी उन्होंने खुद नहीं, परिस्थितियों पर छोड़ी।
चार दशक का यह सफर सवाल भी खड़े करता है और समाधान भी देता है। नीतीश कुमार ने यह साबित किया है कि राजनीति न तो हमेशा टकराव की मांग करती है और न ही कठोर वैचारिक एकरूपता की-राजनीति वह कला है जिसमें हर मोड़ पर दिशा तय करनी पड़ती है। उनके लिए सत्ता एक लक्ष्य नहीं रही, बल्कि एक निरंतर जिम्मेदारी रही, जिसे किसी भी रूप में वह छोड़ने के लिए तैयार नहीं रहे।
आज जब बिहार की राजनीति दो ध्रुवों में बंटी दिखती है, नीतीश कुमार के 25 शपथ यही बताते हैं कि बिहार की सत्ता का इतिहास चाहे जितना बदले, उसकी धुरी लंबे समय तक वही रहे जिन्होंने परिस्थितियों को समय से पहले पढ़ना सीख लिया और इस कला में नीतीश कुमार अकेले खड़े दिखाई देते हैं।
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