अरावली पर खनन खोलने के आरोप खारिज, केंद्र सरकार ने दी स्थिति स्पष्ट
- सरकार ने कहा कि अरावली में नए खनन पट्टों पर सुप्रीम कोर्ट की रोक अब भी प्रभावी
Khabari Chiraiya Desk: अरावली पर्वतमाला को लेकर उठे विवाद के बीच केंद्र सरकार ने रविवार को उन खबरों को सिरे से खारिज कर दिया, जिनमें यह दावा किया गया था कि बड़े पैमाने पर खनन की अनुमति देने के लिए अरावली की कानूनी परिभाषा बदली गई है। सरकार ने स्पष्ट किया कि अरावली क्षेत्र में नए खनन पट्टों पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा लगाया गया प्रतिबंध पूरी तरह लागू है और इसमें किसी तरह की ढील नहीं दी गई है।
केंद्र सरकार का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा अनुमोदित जो प्रारूप अपनाया गया है, वह पर्वतीय प्रणाली को कमजोर करने के बजाय उसकी सुरक्षा को और मजबूत करता है। इस व्यवस्था के तहत एक व्यापक प्रबंधन योजना को अंतिम रूप दिए जाने तक अरावली क्षेत्र में किसी भी नए खनन पट्टे की अनुमति नहीं दी जा सकती। सरकार ने इसे संरक्षण की दिशा में एक ठोस कदम बताया है।
केंद्रीय पर्यावरण मंत्री Bhupender Yadav ने सुंदरबन बाघ अभयारण्य में मीडिया से बातचीत के दौरान कहा कि अरावली को लेकर फैलाए जा रहे भ्रम तथ्यहीन हैं। उन्होंने बताया कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा स्वीकृत परिभाषा के लागू होने से अरावली क्षेत्र का नब्बे प्रतिशत से अधिक हिस्सा संरक्षित श्रेणी में आ जाएगा। उनका कहना था कि यह बदलाव खनन के लिए रास्ता खोलने के बजाय पर्यावरणीय सुरक्षा को कानूनी आधार देता है।
सरकार ने यह भी स्पष्ट किया कि सौ मीटर की ऊंचाई से जुड़ा मापदंड कोई नया विचार नहीं है, बल्कि इसे सभी राज्यों में एक समान रूप से लागू करने का प्रयास किया गया है। सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर अरावली की परिभाषा को मानकीकृत किया गया, ताकि अलग अलग राज्यों में नियमों की अस्पष्टता और उनके दुरुपयोग को रोका जा सके। खासकर उन प्रथाओं पर रोक लगाने का उद्देश्य था, जिनके जरिए पहाड़ियों के आधार के बेहद पास तक खनन जारी रखा जा रहा था।
पर्यावरण मंत्रालय के सूत्रों के अनुसार, सुप्रीम कोर्ट ने अरावली में अवैध खनन से जुड़े लंबे समय से लंबित मामलों की सुनवाई के दौरान मई 2024 में एक समिति के गठन का आदेश दिया था। इस समिति का काम अरावली पहाड़ियों और पर्वत श्रृंखलाओं की एक समान परिभाषा सुझाना था। समिति की अध्यक्षता पर्यावरण मंत्रालय के सचिव ने की और इसमें राजस्थान, हरियाणा, गुजरात और दिल्ली के प्रतिनिधियों के साथ तकनीकी संस्थानों के विशेषज्ञ भी शामिल थे।
समिति की रिपोर्ट में यह सामने आया कि केवल राजस्थान में ही अरावली की एक औपचारिक परिभाषा पहले से लागू थी, जिसका पालन वह वर्ष 2006 से कर रहा है। बाकी राज्यों में अलग अलग मानदंड होने के कारण भ्रम की स्थिति बनी हुई थी। इसके बाद सभी संबंधित राज्यों ने राजस्थान की परिभाषा को अपनाने पर सहमति जताई और उसे अधिक पारदर्शी बनाने के लिए अतिरिक्त सुरक्षा उपाय जोड़े गए।
इस परिभाषा के अनुसार, स्थानीय भूभाग से सौ मीटर या उससे अधिक ऊंचाई वाली भू आकृतियों को पहाड़ी माना जाता है। इन पहाड़ियों को घेरने वाली सबसे निचली सीमा रेखा के भीतर किसी भी प्रकार का खनन निषिद्ध रहेगा, चाहे उस क्षेत्र के भीतर की जमीन की ऊंचाई या ढलान कुछ भी हो। इसके साथ ही यह भी तय किया गया कि पांच सौ मीटर के दायरे में स्थित पहाड़ियों को एक ही पर्वत श्रृंखला माना जाएगा और किसी भी खनन निर्णय से पहले भारतीय सर्वेक्षण विभाग के मानचित्रों के आधार पर स्पष्ट चिन्हांकन अनिवार्य होगा।
केंद्र सरकार ने उन दावों को भी गलत बताया, जिनमें कहा गया था कि सौ मीटर से नीचे के सभी क्षेत्र अब खनन के लिए खुले हैं। सरकार के अनुसार, प्रतिबंध पूरी पर्वतीय प्रणाली पर लागू होता है, न कि केवल पहाड़ियों की चोटियों या ढलानों तक सीमित है। इस तरह के निष्कर्ष भ्रामक हैं और वास्तविक स्थिति को तोड़ मरोड़ कर पेश करते हैं।
गौरतलब है कि Supreme Court of India ने बीस नवंबर 2025 को पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के तहत गठित समिति की सिफारिशों को स्वीकार कर लिया था। सरकार का कहना है कि यह निर्णय अरावली के संरक्षण की दिशा में एक मजबूत कानूनी ढांचा तैयार करता है और खनन को लेकर किसी भी तरह की ढील की आशंका निराधार है।
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