राजनीति@यूपी…सुभासपा के अलग होने से विपक्षी एकता को झटका, राजनीतिक पंडितों के लिए अबूझ पहेली बने ओपी राजभर

सपा प्रमुख अखिलेश यादव की राजनीतिक दूरदर्शिता पर सवाल खड़ा कर रहा है ओमप्रकाश राजभर को सहेज नहीं पाना…
स्वतंत्र पत्रकार बलिराम सिंह की कलम से…
यूपी विधानसभा चुनाव के बाद समाजवादी पार्टी के गठबंधन की गांठें कमजोर होती जा रही हैं। सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (सुभासपा) प्रमुख ओमप्रकाश राजभर सपा गठबंधन से अलग हो गए हैं। मजे की बात यह है कि यह गठबंधन 9 महीने भी नहीं चला। उनके साथ सपा संरक्षक मुलायम सिंह यादव के छोटे भाई एवं प्रसपा प्रमुख शिवपाल यादव को भी सपा ने स्वतंत्र कर दिया है। इससे पहले सपा की एक और सहयोगी पार्टी महान दल की भी राहें अलग हो चुकी हैं।
बेबाकीपन एवं स्पष्टवादिता की वजह से सुर्खियों में रहने वाले ओमप्रकाश राजभर की पार्टी ने वर्ष 2017 में 4 सीटें जीती और 2022 में 6 सीटों पर विजय हासिल किया। राजनीतिक पंडितों के लिए ओमप्रकाश राजभर एक अबूझ पहेली बने हुए हैं। सुभासपा प्रमुख का एक जगह पर स्थायित्व न होना उनकी कमी हो सकती है, लेकिन उनका जूझारूपन और खुलकर बोलना उनकी यूएसपी है।
2019 में भाजपा गठबंधन से अलग होने के बाद जिस तरह से योगी सरकार के खिलाफ बेबाकी से आवाज उठाया, उससे राजभर की लोकप्रियता में इजाफा हुआ। महज 6 विधायक होने के बावजूद चैनलों में प्रदेश के अन्य नेताओं की अपेक्षा ओमप्रकाश राजभर शायद ज्यादा छाये रहते हैं।
यूपी विधान परिषद उपचुनाव में टिकट न मिलने से ओमप्रकाश राजभर के बेटों और पार्टी पदाधिकारियों ने सार्वजनिक तौर पर नाराजगी व्यक्त की थी। आजमगढ़ एवं रामपुर लोकसभा उपचुनाव में सपा प्रत्याशियों की हार के बाद ओमप्रकाश राजभर द्वारा सपा प्रमुख को एससी कमरे से बाहर निकलने की सलाह देना अखिलेश यादव और उनके सलाहकारों को नागवार गुजरी थी और अब स्थिति यहां तक आ गई कि दोनों दलों की राहें जूदा हो गईं।
अब सवाल उठता है कि ओमप्रकाश राजभर के अलग होने से 2024 में सपा पर क्या असर पड़ेगा? प्रदेश की राजनीतिक तस्वीर कैसी होगी? मेरा मानना है कि वर्तमान राजनीतिक परिस्थितियों में आगामी लोकसभा चुनाव को देखते हुए राजभर का सपा गठबंधन से दूर होना सपा के लिए नुकसानदायक साबित हो सकता है।
ओमप्रकाश राजभर पूर्वांचल के अलावा पूरे प्रदेश में चर्चा में रहते हैं। प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र वाराणसी से लेकर सपा प्रमुख अखिलेश यादव के संसदीय क्षेत्र आजमगढ़ में भी राजभर की पार्टी का अच्छा खासा प्रभाव है।
सपा गठबंधन से ओमप्रकाश राजभर के दूर होने से अखिलेश यादव के सामने अनेक चुनौतियां आएंगी। पूर्वांचल एवं मध्य यूपी में अच्छी पैठ रखने वाले एक सहयोगी की कमी खलेगी। अतिपिछड़ों के मुद्दों पर बेबाकीपन से बोलने वाला फिलहाल अखिलेश यादव के पास ओमप्रकाश राजभर जैसा दूसरा नेता नहीं है। यदि ओमप्रकाश राजभर भाजपा में जाते हैं तो नॉन यादव ओबीसी को साधने में भाजपा ज्यादा सफल हो सकती है।
सामाजिक न्याय के मुद्दों को प्रमुखता से उठाने वाली अपना दल (एस) की राष्ट्रीय अध्यक्ष एवं मौजूदा समय में केंद्र में वाणिज्य एवं उद्योग राज्य मंत्री अनुप्रिया पटेल जैसी तेज तर्रार नेता और निषाद पार्टी के प्रमुख एवं योगी सरकार के कैबिनेट मंत्री डॉ. संजय निषाद पहले से ही भाजपा के साथ हैं। ओमप्रकाश राजभर के साथ आने से यह स्थिति और मजबूत होगी। भाजपा अपने इन सहयोगियों के जरिए सामाजिक न्याय के मुद्दे को मजबूती से जनता के सामने रख सकती है। ऐसा होने से भाजपा 2024 में और मजबूत होकर उभर सकती है।
2019 के विपरीत 2024 में यूपी की राजनीतिक लड़ाई का दृश्य कुछ अलग होने की संभावना है। इस बार प्रदेश में तीन पार्टियां आमने-सामने होंगी। सपा-भाजपा के अलावा बसपा भी मैदान में पसीना बहाएगी। गौर करने की बात है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में सपा और बसपा का गठबंधन था। बावजूद इस गठबंधन को महज 15 सीटों पर संतोष करना पड़ा। हालांकि लोकसभा चुनाव बाद यह गठबंधन टूट गया। 2022 के विधानसभा चुनाव में सपा ने अच्छा प्रदर्शन किया और 2017 की अपेक्षा विधायकों की संख्या में ढाई गुना ज्यादा बढ़ा लिया। यह माना जा रहा है कि इस बार परंपरागत वोटों के अलावा अन्य वर्ग के मतदाताओं ने भी सपा को बढ़चढ़ कर वोट किया।
2019 के लोकसभा चुनाव बाद सपा से बसपा का अलग होना और अब 2022 के विधानसभा चुनाव बाद सपा से सुभासपा का अलग होने से विपक्षी एकता को झटका लगा है। इसका असर आने वाले 2024 के लोकसभा चुनाव में दिख सकता है। कुल मिलाकर ओमप्रकाश राजभर को सहेज न पाना अखिलेश यादव की राजनीतिक दूरदर्शिता पर सवाल खड़ा कर रहा है।
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